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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


शांति-1 मुंशी प्रेम चंद

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जून में विवाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ दिया और अपनी हैसियत से बहुत ज्‍यादा दिया, लेकिन फिर भी, उसे संतोष न हुआ। आज सुन्‍नी के पिता होते तो न जाने क्‍या करते। बराबर रोती रही।
जाड़ों में मैं फिर दिल्‍ली गया। मैंने समझा कि अब गोपा सुखी होगी। लड़की का घर और वर दोनों आदर्श हैं। गोपा को इसके सिवा और क्‍या चाहिए। लेकिन सुख उसके भाग्‍य में ही न था।
अभी कपडे भी न उतारने पाया था कि उसने अपना दुखडा शुरू—कर दिया भैया, घर द्वार सब अच्‍छा है, सास-ससुर भी अच्‍छे हैं, लेकिन जमाई निकम्‍मा निकला। सुन्‍नी बेचारी रो-रोकर दिन काट रही है। तुम उसे देखो, तो पहचान न सको। उसकी परछाई मात्र रह गई है। अभी कई दिन हुए, आयी हुई थी, उसकी दशा देखकर छाती फटती थी। जैसे जीवन में अपना पथ खो बैठी हो। न तन बदन की सुध है न कपड़े-लते की। मेरी सुन्‍नी की दुर्गत होगी, यह तो स्‍वप्‍न में भी न सोचा था। बिल्‍कुल गुम सुम हो गई है। कितना पूछा बेटी तुमसे वह क्‍यों नहीं बोलता किस बात पर नाराज है, लेकिन कुछ जवाब ही नहीं देती। बस, आंखों से आंसू बहते हैं, मेरी सुन्‍न कुएं में गिर गई।
मैंने कहा तुमने उसके घर वालों से पता नहीं लगाया।
‘लगाया क्‍यों नहीं भैया, सब हाल मालूम हो गया। लौंडा चाहता है, मैं चाहे जिस राह जाऊँ, सुन्‍नी मेरी पूरा करती रहे। सुन्‍नी भला इसे क्‍यों सहने लगी? उसे तो तुम जानते हो, कितनी अभिमानी है। वह उन स्त्रियों में नहीं है, जो पति को देवता समझती है और उसका दुर्व्‍यवहार सहती रहती है। उसने सदैव दुलार और प्‍यार पाया है। बाप भी उस पर जान देता था। मैं आंख की पुतली समझती थी। पति मिला छैला, जो आधी आधी रात तक मारा मारा फिरता है। दोनों में क्‍या बात हुई यह कौन जान सकता है, लेकिन दोनों में कोई गांठ पड़ गई है। न सुन्‍नी की परवाह करता है, न सुन्‍न उसकी परवाह करती है, मगर वह तो अपने रंग में मस्‍त है, सुन्‍न प्राण दिये देती है। उसके लिए सुन्‍नी की जगह मुन्‍नी है, सुन्‍न के लिए उसकी अपेक्षा है और रूदन है।’
मैंने कहा—लेकिन तुमने सुन्‍नी को समझाया नहीं। उस लौंडे का क्‍या बिगडेगा? इसकी तो जिन्‍दगी खराब हो जाएगी। गोपा की आंखों में आंसू भर आए, बोली—भैया-किस दिल से समझाऊँ? सुन्‍नी को देखकर तो मेर छाती फटने लगती है। बस यही जी चाहता है कि इसे अपने कलेजे में ऐसे रख लूं, कि इसे कोई कड़ी आंख से देख भी न सके। सुन्‍नी फूहड़ होती, कटु भाषिणी होती, आरामतलब होती, तो समझती भी। क्‍या यह समझाऊँ कि तेरा पति गली गली मुँह काला करता फिरे, फिर भी तू उसकी पूजा किया कर? मैं तो खुद यह अपमान न सह सकती। स्‍त्री पुरूष में विवाह की पहली शर्त यह है कि दोनों सोलहों आने एक-दूसरे के हो जाएं। ऐसे पुरूष तो कम हैं, जो स्‍त्री को जौ-भर विचलित होते देखकर शांत रह सकें, पर ऐसी स्त्रियां बहुत हैं, जो पति को स्‍वच्‍छंद समझती हैं। सुन्‍न उन स्त्रियों में नहीं है। वह अगर आत्‍मसमर्पण करती है तो आत्‍मसमर्पण चाहती भी है, और यदि पति में यह बात न हुई, तो वह उसमें कोई संपर्क न रखेगी, चाहे उसका सारा जीवन रोते कट जाए।
यह कहकर गोपा भीतर गई और एक सिंगारदान लाकर उसके अंदर के आभूषण दिखाती हुई बोली सुन्‍नी इसे अब की यहीं छोड़ गई। इसीलिए आयी थी। ये वे गहने हैं जो मैंने न जाने कितना कष्‍ट सहकर बनवाए थे। इसके पीछे महीनों मारी मारी फिरी थी। यों कहो कि भीख मांगकर जमा किये थे। सुन्‍नी अब इसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती! पहने तो किसके लिए? सिंगार करे तो किस पर? पांच संदूक कपडों के दिए थे। कपडे सीते-सीते मेरी आंखें फूट गई। यह सब कपडे उठाती लायी। इन चीजों से उसे घृणा हो गई है। बस, कलाई में दो चूडियां और एक उजली साड़ी; यही उसका सिंगार है।
मैंने गोपा को सांत्‍वना दी—मैं जाकर केदारनाथ से मिलूंगा। देखूं तो, वह किस रंग ढंग का आदमी है।
गोपा ने हाथ जोडकर कहा—नहीं भरेया, भूलकर भी न जाना; सुन्‍नी सुनेगी तो प्राण ही दे देगी। अभिमान की पुतली ही समझो उसे। रस्‍सी समझ लो, जिसके जल जाने पर भी बल नहीं जाते। जिन पैरों से उसे ठुकरा दिया है, उन्‍हें वह कभी न सहलाएगी। उसे अपना बनाकर कोई चाहे तो लौंडी बना ले, लेकिन शासन तो उसने मेरा न सहा, दूसरों का क्‍या सहेगी।

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